प्रासंगिक (४ जनवरी, १९६९)

 

     पहली तारीखको सवेरे सचमुच आश्चर्यजनक बात हुई... । केवल मैंने ही उसे अनुभव नहीं किया, औरोंने भी अनुभव किया है । वह ठीक आधी रातके बाद था, लेकिन मैंने दो बजे अनुभव किया और औरोंने

 


सवेरेके चार बजे । वह.. - पिछली बार मैंने तुमसे उसके बारेमें बस दो शब्द कहे थे, लेकिन आश्चर्यके बात यह है कि मैं जिसकी आशा कर रही थी उसके साथ इसका जरा मी मेल न था ( मैं किसी चीजकी आशा न कर रही थी), मैंने जिन दूसरी चीजोंको अनुभव किया था उनके सा थ मैल न था । यह बहुत ज्यादा द्रव्यात्मक वस्तु थी, यानी, बहुत बाहरी -- बहुत बाहरी -- और वह स्वर्ण ज्योतिसे दीप्तिमान थी । वह बहुत बल- शाली, बहुत शक्तिशाली थी; लेकिन उसका स्वभाव स्मितपूर्ण हितैषिता- का था, शांत हर्ष और तुक प्रकारसे हर्ष और ज्योतिकी ओर एक प्रकारका उद्घाटन । वह ' 'शुभ नव वर्ष' ' की तरह शुभ कामना थी । उसने मुझे अचंभेमें डाल दि३म । वह कम-से-कम तनि घंटे रही । मैंने उसे अनुभव किया । उसके बाद मैं उसके साथ व्यस्त न रही । मुझे पता नहीं क्या हुआ! लेकिन मैंने तुमसे उसके बारेमें दो शब्द कहे थे । और भी दो-तीन लोगोंसे उसके बारेमें बात की : उन सखने उसे अनुभव किया था, मतलब यह कि वह बहुत द्रव्यात्मक थी । उन सबने उसे यूं अनुभव किया : एक प्रकारका हर्ष, लेकिन मैत्रीपूर्ण हर्ष, शक्तिशाली, और... बहुत, बहुत कोमल, बहुत स्मितपूर्ण, बहुत हितैषितापूर्ण.. । मुझे पता नहीं वह क्या है, मुझे पता नहीं कि वह क्या है, लेकिन वह एक प्रकारकी हित  पिता है, इसलिये कोई ऐसी चीज है जो मनुष्यके बहुत नजदीक है । और वह इतनी ठोस थी, इतनी ठोस!! वह इतनी ठोस थी मानों उसमें स्वाद था । उसके बाद मैंने अपने-आपको उसमें व्यस्त नहीं रखा, बस, दो-तीन लोगोंके साथ उसके बारेमें बात की : उन सबने उसे अनुभव किया था । मुझे पता नहीं कि वह मिश्रित थी या वह वापिस तो नहीं गयी । ऐसा नहीं लगा कि वह चीज वापिस जानेके लिये आयी थी ।

 

    मै साधारणत : जिन चीजोंको अनुभव करती हू, यह उनसे कही अधिक बाह्य थीं, कहीं अधिक बाह्य थी... बहुत कम मानसिक, यानी, उसमें ' 'वादे' 'की कोई भावना न थी, या... नहीं । वह बल्कि. मुझे ऐ सा लगा कि कोई बहुत बड़ा व्यक्तित्व है -- बहुत ही बड़ा, यानी, ऐसा जिसके लिये समस्त धरती छोटी-सी है, धरती इतनी छोटी ( माताजी हथेली पर गेंद रखती है), गेंद जैसी -- एक विशालकाय व्यक्तित्व, बहुत, बहुत सद्भावनापूर्ण, जो आता छोटी .. ( माताजी ' हथेलीपरसे गेंदको बहुत धीमे-से उठाती हुई प्रतीत होती हैं) । उससे सगुण भगवानकि छाप पड़ती थी ( और फिर भी... पता नहीं), सहायताके लिये जो आता है, इतना बलवान्, इतना बलवान् और साथ-ही-साथ इतना कोमल, सबको अपने आलिगनमें भरता हुआ ।

 

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     और वह बहुत बाह्य था. शरीरने उसे सब जगह अनुभव किया, सब जगह ( माताजी अपने चेहरेको, हाथोंको छूती है), सब जगह ।

 

      वह क्या बन गया? मुझे नहीं मालूम ।

 

   सालका प्रारंभ था । ऐसा था मानों कोई देवाकार ( यानी, कोई) 'शुभ नव वर्ष'' की कामना करने आया था और उसमें वर्षको शुभ बनाने- की शक्ति थी । वह ऐसा था ।

 

       परंतु वह था क्या?..

 

       इतना ठोस...

 

     मुझे पता नहीं ।

 

   वह.. क्या वह व्यक्तित्व था (क्योंकि उसका कोई रूप न था, मैंने कोई रूस नहीं देखा, केवल वही था जिसे वह लेकर आया था !माताजी वातावरणको अनुभव करती है संवेदन, भाव. ये दो, संवेदन और भाव), मैंने अपने-आपसे पूछा : क्या यह अतिमानसिक व्यवितत्व नहीं है?... जो आगे चलकर अपने-आपको द्रव्यात्मक शरीरोंमें अभिव्यक्त करेगा ।

 

   शरीर, यह शरीर उस क्षणसे अनुभव कर रहा है (वह चीज हर जगह बहुत गहराईमें पैठ गयी है), शरीर बहुत ज्यादा प्रसन्न है, कम धन है, प्रसन्न स्मितमय व्यापकतामें अधिक सजीव अनुभव करता है । उदाहरण- के लिये, वह ज्यादा आसानीसे बोल रहा है । इसमें एक स्वर - सद्भावनाका एक सतत स्वर है । एक मुस्कान, हां, दया-भरी मुस्कान और यह सब बड़ी शक्तिके साथ... मुझे पता नहीं !

 

     तुमने कुछ अनुभव नहीं किया?

 

          उस दिन मुझे संतोष अनुभव हो रहा था ।

 

ओहो! यह वही है, हां, यह वही है ।

 

       क्या यह अतिमानसिक व्यक्तित्व है?... जो उन सबमें अवतरित होगा जिनके पास अतिमानसिक शरीर होगा..

 

    वह दीप्तिमान, मुस्कराती हुई शक्तिके द्वारा सद्भावनापूर्ण थी । यानी, मनुष्यके अंदर सद्भावना एक दुर्बल चीज होती है, इस अर्थमें कि वह युद्ध- को पसंद नहीं करती, लड़ना नहीं चाहती, लेकिन यह दूसरा इस प्रकार- का न था! एक ऐसी सद्भावना जो बाधित करती है । (माताजी दोनों हाथेंकी मुट्ठियां कुरसीके हाथोंपर उतारती हैं ।)

 

    मुझे इसमें रस आया है क्योंकि यह बिलकुल नया है । और इतना ठोस! इसकी तरह ठोस (माताजी अपनी कुरसीके हत्थेको छूती है), वैसा

 

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ठोस जिसे भौतिक चेतना साधारणत: ''और लोग'' सोचती है । यानी, वह किसी आंतरिक सत्तामें, चैत्य सत्तामेंसे नहीं, सीधा शरीरपर आया था ।

 

    वह है क्या?. हा, शायद वह है.. जबसे वह आया है. तबसे शरीर को एक निश्चितिकी अनुभूति है, एक ऐसी निश्चिति मानों अब उसे जाननेकी चिंता या अनिश्चिति नहीं है । शरीर अपने-आपसे पूछा करता था. ''वह क्या होगा? वह 'अतिमानस' कैसा होगा? भौतिक रूपमें, भौतिक रूपमें वह कैसा होगा? '' अब वह इन बातोंके बारेमें नहिं सोचता । वह संतुष्ट है ।

 

      क्या बह कोई ऐसी चीज है जो उन शरीरोंमें व्याप्त हो जायगी जो तैयार हैं?

 

 हां, मेरा ख्याल है, हां । मुझे लगता है कि यह वह रूप है जो उन शरीरोंमें... जो अतिमानसके शरीर होंगे, प्रवेश करेगा -- अपने-आपको प्रकट करेगा -- प्रवेश करेगा और प्रकट करेगा ।

 

    या शायद.. शायद अतिमानव, मुझे नहीं मालूम, दोनोंके बीच मध्यस्थ । शायद अतिमानव. वह बहुत ज्यादा मानवीय था परंतु, मुझे कहना चाहिये, दिव्य अनुपातोंमें मानव, है न ।

 

     एक ऐसा मानव जिसमें दुर्बलता और परछाइयां न थीं. वह सारा प्रकाश था -- समस्त प्रकाश और स्मित.. साथ ही मधुरता ।

 

     हां, शायद अतिमानव ।

 

 ( मौन)

 

पता नहीं क्यों, पिछले कुछ क्षणोंसे मै बराबर अपने-आपसे कह रहा हू : जो लोग यह न जानते होंगे कि चीजें सचमुच कैसे हुई हैं, वे कहेंगे, जब अतिमानसिक शक्ति धरतीके वातावरण मै और उनके अन्दर प्रविष्ट हो जायगी तो बे कहेंगे: ''हां, इस सब कामका श्रेय हमें है ।',

 

(माताजी हंसती है) हां, संभवत: ।

 

     यह हम, हमारी उत्कृष्ट मानवताका पुष्प है ।

 

 हा, निश्चय हा । हमेशा ऐसा होता है ।

 

    इसलिये मै कहती हू -- मैं कहती हू, आखिर हम सब, हममेंसे हर एक- को अंतमें सब कठिनाड्योंका सामना करना होगा, लेकिन यह भागवत कृपा है । क्योंकि अपनी ओरसे हम, हम जानते होंगे कि यह कैसे हो रहा है -- और हम नेस्तनाबूद नहीं हों जायंगे, है न? हमें मालूम होगा कि चीज किस तरह की गयी थी ।

 

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